जून 6th, 2010 के लिए पुरालेख

>जब मित्र ने पहला झापड मारा – ताकत के संस्‍मरण – कुमार मुकुल

जून 6, 2010

>पिता के पढा लिखा कर नवाब बनाने के कायदों का नतीजा यह था कि जब मैं इंटर में गया तो एकदम ललबबुआ था। वह पिता के कडे प्रशासक वाली छवि का प्रभाव था कि मुझे कहीं दबकर नहीं रहना पडा। पर जीवन है तो आपको हर स्थिति का सामना कभी ना कभी करना पडता है और समय जीने के सारे गुर खुद सिखा देता है।
तो 1985 में जब बीए में सहरसा कालेज में मैं राजनीति विज्ञान का छात्र था तो एक छोटी सी घटना ने ताकत और उसके व्‍यवहार से मेरा पहला परियच कराया। तब मेरा एक मित्र था राजेश । कालेज के चार अभिन्‍न मित्रों में वह भी एक रहा। वह स्‍वजा‍तीय था और हमारी दिन रात की यारी थी। एक बार जरूरत पडने पर उसने मुझसे कुछ रूपये लिये। पर जब उसने रूपये लौटाए तो एक छोटी सी राशि रख ली और टका सा जवाब दिया कि इतना पैसा हमारे यहां रह जाता है। मुझे यह अच्‍छा नहीं लगा। पर इस पर बहुत ध्‍यान नहीं दिया मैंने। पर बिसरा दी गयी चीजें भी अवचेतन में अपना काम करती रहती हैं। तो एक बार हमदोनों ने किसी बात पर बारजीत लगायी और हार गया। बारजीत मैंने ही लगायी थी। तो जब उसने बाजी में हारी हुयी रकम मुझसे मांगी तो मैंने उसका जवाब दुहरा दिया, कि इतना पैसा हमारे यहां भी रह जाता है।
दरअसल बाजी में लगायी गयी राशि वही थी जितना उसने मुझे वापिस नहीं लौटाया था। तो देखा जाए तो यह बाजी उसी दबे मानस की उपज थी। इस तरह बाजी हार कर और उसे ना लौटा कर मेरा मन आत्‍मसंतोष करना चाहता था।
पर यही वह घटना घटी जिसने मन के साथ तन के क्रियाकलापों पर निर्णायक असर डाला। मेरा जवाब सुनना था कि मित्र ने एक झापड मुझे रसीद कर दिया। अब मैं कमजोर तो था पर कभी किसी से पिटा नहीं था सो तत्‍काल मैंने भी एक झापड वापिस किया। तबतक उसके पिता जी निकल आए और उन्‍हें देख हमने अपना रास्‍ता अलग कर लिया।

इस घटना की चर्चा मैंने अपनी मां से की। तो अगले दिन मां ने उसे घर के सामने से गुजरते समय डांटा । मेरी मां पतली दुबली पर निडर स्‍त्री थी। वह सांप भी मार लेती थीं।

तो यूं तो हिसाब किताब बराबर था। आगे हमारी दोस्‍ती भी जारी रही। पर यह बात मेरे मन में बैठ गयी कि आखिर सही बात कहने पर उसने पहले हाथ क्‍यों उठाया…। इस बात का जवाब मुझे मिला नहीं। और यही से ताकत के प्रति पहली रूझान मुझमें बनी। अब मैंने धीरे धीरे कसरत आदि आरंभ कर दिया। पंजा लडाना हमारी आदत होता गया। और एक दिन मैंने खुद को जब सक्षम पाया तो राजेश से भी पंजा लडाया और उसे हराया। फिर हम जब तब पंजा लडाते। कभी बराबर पर छूटते कभी एक हारता कभी दूसरा। इसके कुछ समय बाद उसने भी कसरत आदि आरंभ किया। पर यहीं से ताकत की मेरी परिवारिक पृष्‍ठभूमि ने रंग दिखाना शुरू किया।
जारी……