अप्रैल 2010 के लिए पुरालेख

>मेरे मालिक – 1 – आइडियल एक्‍सप्रेस – बनारस – नौकरी के संस्‍मरण

अप्रैल 16, 2010

>अब तक कुल दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं में काम कर चुका हूं मैं तो वहां के कुछ संस्‍मरण मेरे मालिक सीरीज में…

यह चौरानबे पिचानबे की बात होगी। 28-29 का रहा होउंगा। विवाह हो चुका था एक बेटा एक साल का। अखबारों में लिखता था खूब,हिन्‍दुस्‍तान में एक-एक पेज की कवर स्‍टोरी आती थी और फीचर आदि लिखता रहता था। किसी भी विषय पर कलम चला देने की महारत थी। पर इस सब से काम नहीं चल पा रहा था। इसी बीच एक दिन हिन्‍दुस्‍तान के दफ्तर में श्रीकांत जी ने पूछा कि नौकरी करनी है। मैंने पूछा – कहां। तो वे तैश में बोले कि यह बोलो कि करनी है कि नहीं। मैंने कहा- हां करनी है। तब वे बोले – तो कल बनारस चले जाओ।
मैं सोचने लगा कि अचानक यह बनारस। पर वे तपाक से बोले-अखबार में काम करना है तो इस तरह सोचना छोडो। जाओं बोरिया बिस्‍तर तैयार करो। पता चला कि हिन्‍दुस्‍तान के ही एक तिवारी जी वहां संपादक बन कर जा रहे हैं। तिवारी जी उम्र में हमसे एकाध साल ही बडे थे। परिचय था हल्‍का सा। उनकी भी यह नयी नौकरी ही थी पर कुछ गोटी फिट थी उनकी सो हो गये संपादक।
तो दूसरे दिन हम भी बनारस नगरी में नमूदार हो गये। वहां गये तो दो तीन और मित्र पटना के वहां आ चुके थे मेरी तरह के फ्रीलांसर। दीपक, विनय आदि। वहां से एक साप्‍तहिक आरंभ हो रहा था उसके सलाहकार संपादक जनकवि त्रिलोचन हैं यह सूचना श्रीकांत ने मुझे उत्‍साहित करने को दे दी थी। वहां गया तो पता चला कि अभी सबके ठहरने की व्‍यवस्‍था एक साथ है। दो बडे कमरे अखबार के मालिक ने दे दिये थे और पास ही अखबार का दफ्तर था एक सिनेमा हॉल के उपर।
बडा मजा आ रहा था। पूरी टीम एक साथ रह रही थी1 एकाध शाम खाना मालिक की तरफ से ही आ गया। फिर तय हुआ कि अभी एकाध महीना इसी कमरे में रह सकते हैं सब फिर अपना अपना ठिकाना अलग कर लिया जाएगा। तो हास्‍टल लाइफ का मजा मिलने लगा हमें। साप्‍ताहिक था तो उस तरह काम का दबाव नहीं था। फिर हमलोग ट्रेनी थे। पहली नौकरी में। पहुंचने के अगले दिन सुबह दस बजे हमलोग दफ्तर पहुंचे तो पहले हमारा टेस्‍ट लिया गया। एक सज्‍जन थे युवा से ही मीठे स्‍वभाव के,मालिक जमात से, उन्‍हीं के मुका‍बिल था मैं। कई सवालों के बाद उन्‍होंने पूछा क्‍या क्‍या लिख लेते हैं आप। मैंने कहा – फीचर,रपट,समीक्षा आदि सबकुछ।
फिर वे बोले समीक्षा कितनी देर में कर लेते हैं। मैंने सोचा फिर कहा- यह किताब पर निर्भर करता है। सप्‍ताह भर, एक दिन और जरूरत पडी तो एक घंटे में भी। वे मुस्‍कुराये – आखबारी ट्रेनिंग थी हमारी , माने कुछ भी असंभव नहीं। उनके पास तसलीमा नसरीन का कविता संग्रह था एक। वह थमाते उन्‍होंने कहा इसकी समीक्षा कर के ले आइए। मैंने सोचा अच्‍छी मुसीबत है अब तक समीक्षा के लिए किताबें लेने पर कम से कम एक सप्‍ताह का समय मिलता था। इन्‍हें यहीं चाहिए। मैंने सोचा अच्‍छा नमूना आदमी है, पर मुस्‍कुराते हुए किताब उठायी और सामने टेबल पर बैठ गया। करीब तीन घंटे लगे और समीक्षा पूरी हो गयी। दरअसल कविताएं अच्‍छी थीं कुछ पहले से पढ ही रखा था तसलीमा को। उसके तीखे तेवर खींचते थे – मेरी बडी इच्‍छा होती है लडका खरीदने की/उन्‍हें खरीदकर,पूरी तरह रौंदकर सिकुडे अंडकोश पर/जोर से लात मारकर कहूं/भाग स्‍साले।

फिर प्रेम की अंतरलय भी तरीके से अभिव्‍यक्‍त की थीं तसलीमा ने – पूरा जीवन सूना था…तुम इस तरह उडेल दे रहे हो…खींच ले रहे हो इतने पास…इतना तो मेरा प्राप्‍य नहीं थ।

सो लिखकर शीर्षक लगाया मैंने – सौंदर्य व हस्‍तक्षेप के नवबोध की नई भाषा। तो जब मैंने समीक्षा दी सज्‍जन को तो वे चौंके और खुश हुए। वह समीक्षा अब पंद्रह साल बाद आनेवाली आलोचना की किताब में संकलित है तो लगता है कि वहां मैं अखबार के साथ अपना काम भी कर गया था।
तो अब मैं नौकर था। साप्‍ताहिक था तो दिन में काम नहीं होता खास। समय काटने को अक्‍सर अंग्रेजी से अनुवाद को कोई पीस थमा दिया जाता। मेरा सिर भन्‍ना जाता। जब अखबार का पहला अंक आया तो उसमें आठ अनुवाद मेरे थे। मुझे लगा कि ये तो जान मार देंगे ससुरे। आगे से अखबार की नौकरी में अनुवाद ना करने की नीति बना ली मैंने और उस पर अमल भी किया। इसके लिए अनुवाद तो करता पर उसे इतना मौलिक बना देता कि संपादक को बर्दाश्‍त नहीं होता था फिर वह हमें अनुवाद का काम नहीं देता था।

पहली बार वहां मैंने अखबार के कुछ काम सीखे। हेड्रिग लगाना,इंट्रो लिखना आदि। कंपोजिंग के लिए अलग सेक्‍शन था सो यह सिरदर्द आजे के अखबारों की तरह नहीं था। दोपहर में खाने के बाद नींद आने लगती मुझे तब कुछ नहीं सूझता तो सामने रखी आलपीन को हाथ में चुभाता पर नींद तो नींद थी आती रहती पर आलपीन भी आलपीन थी काम करती रहती थी।

हिन्‍दुस्‍तान के मेरे काम की बडी चर्चा थी वहां। सो वे हर काम दे देते थे। रपटें भी अच्‍छी लिखता था मैं। सो कभी कभार कहीं किसी को भेजना होता तो मुझे ही तलाशते सब। मुझे वह बहादुरी का काम लगता सो मैं चला जाता दौडा। पर मैं जिददी था। समझौते नहीं जानता था आज तक नहीं जाना। सो पता चला कि एक रपट के लिए मुझे पास के एक जिलें भदोई जाना है और बाल बुनकरों के शोषण को लेकर वहां के जिलाधिकारी से सवाल जवाब करना है। तो सबसे बहादुर मैं ही समझा जाता था तो रात में मालिक की गाडी में ही जाने की व्‍यवस्‍था थी रात उसके घर में ठहरना था फिर सुबह डीएम से बात कर आ जाना था शाम तक। रात दस बजे गाडी चली बनारस से । मालिक युवा था और खुद गाडी हांक रहा था। पीछे एक आदमी और था साथ। गाडी फर्राटे से चली जा रही थी। शहर से बाहर आते समय एक जगह एक नंगा आदमी गाडी से टकराने से बचा। मैं चौंका पहली बार इस तरह निपट नंगो को मैंने देखा था सडक पर। साथ वाला आदमी समझाता जा रहा था मुझे कल की बातचीत के बारे में। मेरी उसमें कोई रूचि नहीं थी मैं सोच रहा था कि रपट मुझे लिखनी है तो यह क्‍यों माथा खा रहा है डीएम ही तो है कोई तोप है क्‍या…। अब तक मायावती,लालू प्रसाद,नीतीश आदि तमाम राजनेताओं से दर्जेनों मुलाकातें हो चुकी थीं मेरी बातचीत आदि खेल की तरह था। ओर यह डीएम डीएम कर रहा था। यह छोटे शहर के अखबार का नतीजा था राजधानी के अखबार में तो लोग हंसेंगे कि डीएम भी कोई इंटरव्‍यू लेने की चीज है। अदना सा सरकारी नौकर है वह तो राजनीतिज्ञ आजकल उनसे खैनी लटवाने का काम करते हैं बिहार में।
तो आखिर हम आधी रात को मालिक के डेरे पर पहुंच गये। उसने हमें दालान सी एक जगह में सोने की जगह दिखा दी और खुद अपने महल में चला गया। साथ वाला आदमी भी वही साथ की चौकी पर आ गया। सुबह जगा तो देखा कि वह बडे से आहाते वाला मकान है और उसके एक सिरे पर दर्जनों बच्‍चे हैं छोटे कमरों में। पता चला कि ये बुनकर हैं। मालिक ने जिस तरह से हमलोगों को महल के बाहर छोड दिया था रात को मेरे मन में इसका गुस्‍सा था ही सो जब जिलाधिकारी से बात हुयी तो मैंने बुनकरों के मालिकों दवारा बच्‍चों के शोषण को लेकर कुछ तीखे सवाल किये1 बाकी विकास उकास आदि को लेकर जेनरल सवाल कर मैं चला आया।
अगले दिन रपट लिखने के समय तक मुझे पता चल चुका था कि यह रपट मालिक ने अपना उल्‍लू सीधा करने को लिखवायी है सो लिखते समय मैंने पूछा संपादक से कि बुनकरों के शोषण के मामले पर भी बहुत कुछ पूछा है मैंने वह सब लिख दूं ना । संपादक ने हंसते हुए कहा हां लिख दो। मैंने लिख दिया खरा खरा1 जब संपादक ने पढा तो माथा पीट लिया। बहुत नाराज हुआ वह। पहली बार मुझे किसी ने डांटा सो मैं रूआंसा हो गया।
बाद में मुझे पता चला कि मालिक के होटल में एक बलात्‍कार हुआ था जिसमें वह भी फंसा था और उस पर केस चल रहा है। और यह अखबार इसी सब की भरापाई के लिए है। जिन त्रिलोचन जी के नाम पर आया था मैं वे कभी दिखे नहीं वहां।
तब तक काम करते एक महीना हो चुका था और इतनी लंबी नौकरी की आदत नही थी घर से दूर सो इस नाम पर छुटटी ली कि कुछ सामान लाया नही था अब घर जाकर कुछ काम के सामान आदि साथ ले आउं।
पटना गया तो वहां से पाटलीपुत्र टाइम्‍स का प्रकाशन फिर से होने जा रहा था। युवा मित्र अंजनी और रत्‍नेश्‍वर चाहते थे कि मैं भी उस अखाबार की नयी टीम मे रहूं उनके साथ। तो जाते ही एक साक्षात्‍कार के बाद मेरी नौकरी पक्‍की हो गयी1 फिर मैं अगले दिन बनारस गया सामान लेने तब वहां मुझे लेकर उत्‍साह का माहौल था। मेरा एक आलेख जो रघुवीर सहाय को लेकर था उसकी चर्चा थी , त्रिलोचन जी शहर में थे और एक गोष्‍ठी में उन्‍होंने मेरे लेख की प्रशंसा की थी कि यह लडका रामविलास शर्मा की तरह लिखता है ,यह बात मुझे संपादक ने कही। इतना काफी था मेरे खुशी में डूब मरने के लिए। पर मुझे उसी दिन लौटना था जब मैंने यह खबर संपादक को दी वह उदास हो गया। मुझे तब उसकी डांट याद आयी और मैं चमकता हुआ अपना बोरिया बिस्‍तर ले इस पहली नौकरी से छुटटी पा वापिस पटना आ गया।

>एक अनंत से दूसरे अनंत तक: अनामिका की कविताएं – कुमार मुकुल

अप्रैल 16, 2010

>

अनामिका की कविताएँ औसत भारतीय स्त्री जीवन की डबडबाई अभिव्यक्तियाँ हैं-
‘‘मैं उनको रोज झाड़ती हूँ-पर वे ही हैं इस पूरे घर में जो मुझको कभी नहीं झाड़ते!’’
‘फर्नीचर’ कविता की ये पंक्तियाँ आधी आबाद के गहन दुख को उसकी सांद्रता के साथ जिस तरह अभिव्यक्त करती हैं वह अभूतपूर्व है। घर भर को खिला-पिला सुलाकर जब एक आम घरेलू स्त्री जाड़े की रात में अपने बरफाते पाँवों पर खुद आयोडीन मलती अपने बारे में सोचना शुरू करती है तो सारे दिन, घर भर से मिले तहाकर रखे गए दुख व झिड़कियाँ अदबदा कर बहराने लगते हैं। तब अलबलायी-सी उसे कुछ नहीं सूझता तो कमरे में पड़े काठ के फर्नीचर को ही सम्बोधित कर बैठती है वह। कोई जीवित पात्र उसके दुखों में सहभागिता निभाने को जब सामने नहीं आता तो उनपर बैठती वह सोचती है कि घर भर से यही अच्छे हैं जो सहारा देते हैं। अपने निपट अकेलेपन से लड़ती उसकी कल्पना का प्रेमी तब आकार लेने लगता है। जिसका सपना लिए वह उस घर में आयी होगी और उसे वहाँ अनुपस्थित पा उसके इन्तजार में दिन काट रही होगी। भारतीय लड़कियों के मन में बचपन में ही एक राजकुमार बिठा दिया जाता है, जिसे कहीं से आना होता है। बचपन से किशोरी और युवा होने तक उस राजकुमार की छवियाँ रूढ़ हो ऐसी ठोस हो जाती हैं कि उन्हें अपने मन का राजकुमार कभी मिलता नहीं तब इसी तरह अपने अकेलेपन में वे जड़ चीजों में अपना प्रिय, अपना राजकुमार आरोपित करती हैं। चूँकि बचपन से ही जड़ गुड्डे-गुड़ियों में, राजकुमार को ढूँढ़ने पाने की उन्हें आदत होती है-
‘‘किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फर्नीचर
कठुआ गए होंगे किसी शाप से…
एक दिन फिर से जी उठेंगे ये…
थोड़ों से तो जी भी उठे हैं।
गई रात चूँ-चूँ-चूँ करते हैं;
ये शायद इनका चिड़िया जनम है,
कभी आदमी भी हो जाएँगे!’

फर्नीचर में अपना प्रेमी ढूँढ़ जब वे सकून भरी साँस लेती हैं और उनकी कल्पना में वे जीवित होने लगते हैं तो वह फिर घबरा जाती है कि कहीं जीवित होने पर ये भी घर भर की तरह रूखाई का व्यवहार करने लगे तब। क्योंकि जिसको राजकुमार बता उसे ब्याहा गया होता है वह कहीं से उसके सपनों के राजकुमार से मिलता नहीं, सो उसके भीतर पड़ी दुख की सतहों से आवाज उठती है। कि क्यों वह इन जड़ चीजों को जिलाने पर पड़ी है  कि कहीं वे सचमुच जग गए तो वे भी उसे शासित करने वाली एक सत्ता पिता-पति-पुत्र में बदल जाएँगे और उसे मौके-बेमौके झाड़ने लगेंगे-
’’जब आदमी ये हो जाएँगे,
मेरा रिश्ता इनसे हो जाएगा क्या
वो ही वाला
जो धूल से झाड़न का?’

यह रिश्ते का सवाल बड़ा जटिल है भारतीय स्त्री के जीवन में, जो आजीवन रिसता रहता है, कि उसका इससे या उससे रिश्ता क्या है…। मनुष्य से मनुष्य का रिश्ता उसके लिए नाकाफी हो जाता है। वह जवाब दे नहीं पाती ताउम्र इस सवाल का कि यह या वह तेरा  लगता कौन है…। ‘फर्नीचर’ कविता एक भारतीय स्त्री के जीवन और उसके पारंपरिक रिश्तों के खोखलेपन को जाहिर करती है।
दरअसल अनामिका की स्त्रियाँ परंपरा का द्वन्द्व सँभाले अपनी रौ में आगे बढ़ती स्त्रियाँ हैं जो स्वभाव से ही विद्रोहिणी हैं, विद्रोह उनका बाना नहीं है, जीवन ही है वह। विद्रोह की लौ को जलाए, जलती हुई व,े किसी भी कठिन राह पर डाल दिए जाने की चुनौती स्वीकारती हैं। उन्हीं कठिन घड़ियों में से, उसी कठोर जीवन में से निकाल लेती हैं वो अपने आगामी जीवन का सामाँ-
’’जब मेरे आएँगे-
छप्पर पर सूखने के दिन,
मैं तो उदास नहीं लेटूंगी!
छप्पर के कौए से ही
कर लूँगी दोस्ती,
काक भुशुंडी की कथाएँ सुनूँगी
जयंत कौए का पूछूँगी हाल-चाल
और एक दिन किसी मनपसंद
कौए के
पंखों पर उड़ जाऊँगी…
कर्कश गाते हैं तो क्या
छत पर आते तो हैं रोज-रोज,
सिर्फ बहार के दिनों के नहीं होते
साथी!’’

पुरुष सोचता है कि उसने स्त्री के लिए तय कर रखे हैं चौखटे, छप्पर! पर मन- ही-मन ये विद्रोहिणी स्त्रियाँ सारा हिसाब लगाती रहती हैं। कि वे भी जानती है आजादी का मरम, साथी के साथ का सुख, वे भी चुनती रहती हैं अपने दुख के दिनों के साथियों को और तैयार रहती हैं चल देने को उसके साथ किसी भी पल-
’’वह कहीं भी हो सकती है-
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सबमें
गलतियाँ भी खुद ही करेगी…
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी’’
(आलोक धन्वा)
यह बहुत ही ढीठ स्त्री है ,दीठ नहीं लगती उसे। वह खुल कर उस जयंत कौए का हाल पूछती है जिसने राम के साथ बैठी सीता के पाँवों में चोंच मारी थी।
दरअसल अनामिका की कविताओं में आए तमाम शब्द, बिम्ब, प्रतीक, वस्तुएँ या जो कुछ भी प्रयुक्त हैं वो एक बहाना भर हैं उस स्त्री के विद्रोह को प्रकट करने के। पुरुष समझता है कि अब उसने समेट लिया है उसे, उस आग को पी लिया है। पर स्त्री है कि बल उठती है फिर फिर, बलती रहती है अपनी तरह से, आखिर पुरुष की तरह वह भी एक ऊर्जा का केन्द्र है। भला उसका विनाश कैसे हो सकता है, बस रूपांतरित ही हो सकती है वह और उस रूपांतरण में ही उसे मिटा देने, नियंत्रित करने का भरम पाले रखता है पुरुष-

‘‘अपनी जगह से गिरकर
कहीं से नहीं रहते
केश, औरतें और नाखून’’

स्त्री मनोविज्ञान को समझने का दावा करने वाले ऐसी अशेष मूर्खताओं के पूंज पुरुषों को अच्छी तरह पहचानती हैं अनामिका की स्त्रियाँ जो पहले तो उन पर डोरे डालते हैं, कसीदे कढ़ते हैं उनके रूप और शान के फिर कुछ हाथ ना लगने पर हवा में उछाल देेते हैं ‘रंगीन अफवाहें’, खुदमुख्तार हो बन जाते हैं चरित्र की कसौटी, ऐेसे पुरुषों से हाथ उठा  तौबा करती अनामिका की स्त्रियाँ कहती हैं-’’परमपुरुषों-बख्शो…।’’
हिन्दी के कवि बहुत कम शब्दों से अपनी चमत्कारी कविता संभव कर रहे हैं अरसे से। पर ज्ञानेन्द्रपति, लीलाधर मंडलोई से लेकर कुमार वीरेन्द्र तक कवियों की एक ऐसी जमात भी हिन्दी में आ रही है, जो नए-नए शब्दों को अपनी कविताओं में जगह देकर हिन्दी के लिए नई जमीन बना रही है। ज्ञानेन्द्रपति अगर संस्कृत के छूट रहे शब्दों को ला रहे हैं तो मंडलोई आदिवासी जीवन के आस-पास से शब्द ला रहे हैं वहीं कुमार वीरेन्द्र भोजपुरी से बड़े पैमाने पर शब्द ला रहे हैं…और यह सब सहजता से हो रहा है बिना किसी अतिरिक्त ताम-झाम के। कवयित्रियों में अनामिका अकेली हैं जो यह काम बड़े पैमाने पर कर रही है? वे आम बोलचाल के ऐसे शब्दों को कविता में ला रही हैं, जिन्हें आमतौर पर छोड़ दिया जाता है-जैसे-चानी, कछमछ, ठोंगा, मताई; गपाष्टक, अगरधत्त, चाचीपंथी, जनमतुआ, आदि।
वैदिक काल में स्त्री ऋषि शची पौलमी ने एक मंत्र में उस समय ऊँचा सर कर चलने वाली स्त्रियों को लक्ष्य कर लिखा था-‘मे दुहिता विराट्’। हिन्दी कविता में सविता सिंह के यहाँ वह स्त्री पहली बार दिखी थी अपनी विराटता के साथ। अनामिका के यहाँ वह विराटता व उद्दात्तता अपनी अलग असीमता के साथ अभिव्यक्त होती है-
‘‘आकाश खुद भी तो पंछी है-
बादल के पंख खोल उड़ता चला जाता है
एक अनंत से दूसरे, अनंत तक।’’

विष्णु खरे ने हिन्दी कविता को नई ऊँचाई दी है पर हिन्दी में आ रही इन कवयित्रियों ने नए सिरे से परिमाषित कर बताना शुरू कर दिया है कि खरे के अनंत के मुकाबिल अभी बहुत से नए अनंतों की अभिव्यक्ति बाकी है। कविता का अंत नहीं है कहीं, ना जीवन का, आधी आबादी का अनंत कविता में रचा जाना अभी बाकी है, वही रच रही हैं अनामिका।
ऐसा होता है कि कभी-कभार सामने वाला व्यक्ति आपसे पूछता है कि-कहाँ खोए हैं आप-तो चौंकते हैं आप कि अरे नहीं…। तो यह जो खोया-खोयापन है वह अनामिका की कविताओं का स्वभाव सा है। वह हिन्दी की पहली ऐसी कवयित्री हैं जो इस खोेये-खोयेपन को अपनी रचनात्मक ताकत बना पाती हैं। इसके चलते अक्सर यह होता है कि शीर्षक पढ़ जो अंदाज  लगा आप पन्ने पलट कविता तक पहुँचते हैं, वहाँ जाने पर आप कोई और ही कविता पाते हैं। पर कविता आपको अपने साथ ले चलती है, अपनी खोयी-खोयी नई-सी दुनिया में जहाँ फिर बहुत कुछ पा जाते हैं, आप अनायास। आप चलते हैं ‘हँसी’ पढ़ने और पढ़ते हैं हूक-
‘‘कोई बहुत अपना
उठकर जब चला गया
सिगरेट पी आने
दुनिया से बाहर
हमने सोचा-
‘साँसें घुटती-सी हैं’
अब शायद हमसे भी जिया नहीं जाएगा…’’

या
‘‘किसी को जानना
मोल ले लेना है
अपने लिए एक आईना।’

अनामिका जानती हैं यह सच, इसलिए बारहा दिखा पाती हैं वो आईना।
अनामिका का स्त्री विमर्श चर्चा में रहने के लिए किया जा रहा विमर्श नहीं है। वह उस आधी आबादी का विमर्श है जो विमर्श करती नहीं जीती हैः
‘‘दरअसल जो चुनी जा रही थीं-
सिर्फ जुएँ नहीं थीं
घर के वे सारे खटराग थे
जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा’

वह जमीनी विमर्श है, जहाँ स्त्री रोज अपनी लड़ाई लड़ती है, हारती है, हारते- हारते जीतती है?
‘‘वे कहते हैं और कहते हैं ठीक-
अपनी औकात जाननी चाहिए,
पैर उतने पसरिए
जितनी लम्बी सौर हो!
और सौर के भीतर
गुड़ी-मुड़ी होकर
जो सोया हो कोई सौर-मंडल?
सोए हांे जो चाँद-सूरज
बाल-बुतरू की तरह
…सोए हों जो तारे,
पेड़-वेड़…
जो पहाड़ टभक रहे हों मेरे आँचल में
मेरी यह दूधभरी छाती बनकर?
घर ये जो है-
इक्कट-दुक्कट का बाड़ा ही है…
खेल रही हूँ, जब तक…
बाद उसके
हद क्या? क्या बेहद?
यहाँ आलोक धन्वा फिर याद आते हैं-
‘‘तुम…
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूँढ़ती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में!’’

दरअसल स्त्री विमर्श की सही जमीन दिन-ब-दिन पुरुषों की जहालत झेलती आम घरेलू स्त्री के पास ही है। अनामिका वहीं से अपनी बात उठाती हैं, अपनी सौर का विस्तार बता पाती हैं वे। जैसे कभी सीता ने बताया था लव-कुश के माध्यम से राम-लक्ष्मण-हनुमान की सेना को जमीन सुंधा कर। वे बताती हैं कि हम तुम्हारी गुलामी झेलती हैं पर अवसर खेलती हैं, तुम्हारे घरों की सीमा में अपनी अक्ल से और जब चाहती है दिखा देती हैं तुम्हें भी अपनी औकात, दिखाती रहती हैं कि घर मेरी ही नहीं तुम्हारी भी सीमा है? उस सीमा के बाहर कदम रखा नहीं बेखौफ कि तुम्हारी तथाकथित सत्ता, तुम्हारा कल्पित ब्रह्मांड डगमगाकर बैठने लगता है?
गुलामी हमेशा परस्पर की होती है, अवसर हमें उसका बोध नहीं होता। जब हम किसी को कहते हैं कि तू खड़ा रह यहीं पूरे दिन, देखता हूँ तू यहाँ से कैसे हिलता है, तब  तुम भी उसे देखते खड़े रह जाते हो पूरे दिन? मेरे पिता अंग्रेजी शिक्षक हैं, विद्वान। पर माँ को अंग्रेजी आती नहीं। सो उनकी विद्वता का माँ पर कोई असर नहीं होता। पर माँ जिन भोजपुरी मुहावरों का प्रयोग करती हैं, वह पिता को आती है, जिससे वो बेध डालती हैं उन्हें। अभी हाल ही में दिल्ली में मेरे एक अग्रज, मित्र अपना हाल सुना रहे थे-कि उनकी पत्नी ने एक ज्योतिष से परिवार की ग्रहदशा दिखाई है, जिसके अनुसार पति को उससे एक साल दूर रहना होगा, कमाऊ बेटे के हित में। मतलब कमाऊ पति की जगह कमाऊ बेटे के आते ही उसने अपनी गुलामी बदल खुद पर खाना आदि बनाने को लेकर आश्रित पति को दूर कर उसे अकेला और असहाय करने की राह चुन ली। तो कुल जमा मित्र के क्रान्तिकारी जीवन की एक उपलब्धि यह ज्योतिषाश्रित परिवार भी हुआ। तो तमाम क्रान्तिकारी एसी ही विडम्बनाएँ रच रहे हैं? ऐसा ही परिवार बचा रहे हैं।
तो इस तरह के घर-परिवार बचाने की मुहिम पर साफ सवाल खड़ा करती हैं अनामिका-
‘‘खुसरो जी, उस वक्त भी छेड़ना मत तुम,
घर चलने का किस्सा,
कौन घर होता हुआ देखा ‘आपना’?’’

कथाकारों की तरह अपने कविता के पात्रों के मानस में उतर कर उसके अंतरद्वंद्वों, उसके दर्शन के साथ, उसकी भाषा में ही उसे उतार देना अनामिका की रचना प्रक्रिया का हिस्सा सा है। तभी वे पात्रों को उसके परिवेश की घ्वनियों और उसकी निजी शब्दावली के साथ रच पाती हैं। ‘चकलाघर की दुपहरिया’, ‘कूड़ा बीनते बच्चे’ आदि कविता में इसे देखा जा सकता है-
‘‘दोपहर में गली के नुक्कड़ पर
लू से पत्तों का गदहपटका…
सीढ़ी के दोंगे में बिछाकर चटाई
बैठी थी धूप बाल खोले…
क्या नदी का पहला पाप है विह्वलता?…
उतरता हुआ क्यों अकेला हो जाता है कोई भी…
कोई सोए साथ भले पर जगते सभी अकेले हैं।…
जिन्दगी इतनी सहजता से जो हो जाती है विवस्त्र
क्या केवल मेरी हो सकती-उसने कहा था!
पर वह केवल उसकी क्यों होती?.’’..
(चकलाघर की दुपहरिया)
’’बोरियों में टनन-टनन गाती हुई
रम की बोतलें
उनकी झुकी पीठ की रीढ़ से
कभी-कभी कहती हैं:
‘‘कैसी हो? कैसा है मंडी का हाल?’’
(कूड़ बीनते बच्चे)
‘‘मैं एक दरवाजा थी
मुझे जितना पीटा गया,
मैं उतनी खुलती गई।’’

दरअसल यह पुरुषों के अब तक चले आ रहे विमर्श के मुकाबले का स्त्री विमर्श है जो अपने आस-पास की चीजों से, जमीन से अपना दर्शन रचता ह,ै जिसमें लड़ने का माद्दा है और सामने वाले की आँखों में आँखें डाल अपना दर्शन दिखला पाने, समझा पाने का इत्मीनान भी है। यह आधी आबादी का संघर्ष और उसकी अर्जित भाषा का इत्मीनान है। अपने श्रम का मोल समझ पाने और उसे समझा पाने के आत्मविश्वास से पैदा इत्मीनान है यह, जो जीवन के नए दर्शन का दरवाजा खोलता है। यहाँ से एक नई कविता का आरम्भ होता है। मुक्तिबोध ने लिखा था-कहीं भी खत्म कविता नहीं होती…। अनामिका कहती हैं कहीं से भी शुरू हो सकती है कविता, कहीं से उठ सकती है आवाज। अक्ल के कचराघरों पर कभी भी फेरी जा सकती है। ‘झाड़ू’ और मुक्तिबोध को याद किया जा सकता है फिर,फिर-
‘‘कि बेहतर चाहिए…।’’

>ये पैसे मैं आपको कहां लौटाउंगा – संस्‍मरण – कर्म और भाग्‍य

अप्रैल 16, 2010

>घटना पंद्रह साल पहले की है। पटना रेलवे स्‍टेशन से दिनकर चौक के लिये टेम्‍पो पर बैठ रहा था मैं। पीछे की तरफ मेरे बाद एक सीट और खाली थी आटो में। तभी एक बूढा आदमी आया और आटो ड्राइवर चलने के पहले सबसे भाडा वसूलने लगा। बूढे के पास सवा रूपये थे जबकि भाडा डेढ रूपये था। तो डा्इवर उसे उतारने लगा। मुझे लगा कि अरे चार आने की तो बात है सो बोला- अरे अब बाबा को कहां उतार रहे हो चलो मेरे में से काट लो। अब बाबा बैठ गये मेरे बगल में।
बाबा को मुझसे पहले उतरना था तो उतरने के बाद उन्‍होंने लाड से देखते मुझसे पूछा – अब इ पइसा हम रवा के कहां लौटाइब..मतलब अब ये पैसे मैं आपको कहां लौटाउंगा। मैंने इस पर ध्‍यान ना देते कहा- अरे बाबा जाइए अब लौटाना क्‍या है…।
बाद में आटो चला तो बाबा की करूण मुद्र बार बार याद आ रही थी। फिर मैं सोचने लगा कि अब ये बाबा अगले हर जरूरत मंद को अपनी जगह देखेंगे और उसकी मदद करना चाहेंगे क्‍यों कि उनके हिसाब से वह चरन्‍नी उन पर कर्ज हो गयी,उनके मानस पर कर्ज हो गयी थी। और इस तरह एक चक्र चलेगा लौटाने का जो बहुगुणित होता चला जाएगा। चूंकि लौटाने के लिए उन्‍हें मैं फिर नहीं मिलूंगा तो वह लौटाना जारी रहेगा तमाम उम्र तमाम जरूरतमंदों को। फिर किसी दिन जरूरत पडने पर जब कोई अचानक मेरी मदद को बढ आएगा तब मैं कहूंगा कि आज मेरा भाग्‍य अच्‍छा था।
पर हम इस तरह भी तो सोच सकते हैं कि वह मेरी चरन्‍नी ही है जो लौट रही है इस रूप में। मतलब अगर सचेत रूप में आप मदद को अगर तैयार रहते हैं तब भी आप अपनी ही मदद कर रहे होते हैं। दुनिया बहुत छोटी है और आपका व्‍यवहार आप तक लौटता है , कर्म और भाग्‍य आदि तो उसकी सीमित व्‍याख्‍याएं हैं ।